زندگی سے بڑی سزا ہی نہیں
اور کیا جرم ہے پتا ہی نہیں
اتنے حصوں میں بٹ گیا ہوں میں
میرے حصے میں کچھ بچا ہی نہیں
زندگی موت تیری منزل ہے
دوسرا کوئی رستہ ہی نہیں
سچ گھٹے یا بڑھے تو سچ نہ رہے
جھوٹ کی کوئی انتہا ہی نہیں
زندگی اب بتا کہاں جائیں
زہر بازار میں ملا ہی نہیں
جس کے کارن فساد ہوتے ہیں
اس کا کوئی اتا پتا ہی نہیں
کیسے اوتار کیسے پیغمبر
ایسا لگتا ہے اب خدا ہی نہیں
چاہے سونے کے فریم میں جڑ دو
آئینہ جھوٹ بولتا ہی نہیں
اپنی رچناؤں میں وہ زندہ ہے
نورؔ
سنسار سے
گیا ہی
نہیں
ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है
दूसरा कोई रस्ता ही नहीं
सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूट की कोई इंतिहा ही नहीं
ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ
ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं
जिस के कारन फ़साद होते हैं
उस का कोई अता-पता ही नहीं
कैसे अवतार कैसे पैग़मबर
ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं
चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आईना झूट बोलता ही नहीं
अपनी रचनाओं में वो ज़िंदा है
'नूर' संसार से गया ही नहीं
تبصرے
ایک تبصرہ شائع کریں